ये शहर फिर अजनबी बन गया है।
यहां हर शख्स मेरी पहचान पूछता है।।
सालों जीया हूं यहां की फिजां में दोस्त
अब मेरा वजूद मरने को तैयार बैठा है।।
चंद लम्हों में ही अपनों से पराए हो गए।
आह वक्त बड़ा बेरहम दिखता है।।
यहां मोहब्बत में जीने की ख्वाहिश थी मेरी।
मगर हर मोड़ पर ख्वाहिशें लावारिस मिली।।
जिंदगी का हर लम्हा ढूंढता रहा एक वफादार।
यहां तो दगाबाजों की फेहरिस्त लंबी निकली।।
तू दोस्त न सही, दुश्मन ही सही।
सुकून है कि मेरी झोली खाली नहीं निकली।।
मेरे न होने का अहसास तो तुझे होगा।
नफरत से ही सही, मेरी तलाश तो होगी।।
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.